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जो आप मोबाइल पर देखेंगे, वह सिनेमा नहीं है: अडूर

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जो आप मोबाइल पर देखेंगे, वह सिनेमा नहीं है: अडूर

भारतीय सिनेमा के सर्वोच्च पुरस्कार दादा साहेब फाल्के से सम्मानित अडूर गोपालकृष्णन दुनिया के बेहतरीन फिल्म निर्देशकों में शुमार हैं। इनकी पहली फीचर फिल्म स्वयंवरम  50 वर्ष पहले प्रदर्शित हुई थी। तब से महज 12 फिल्में, लेकिन 16 राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार उन्हें अलग श्रेणी में खड़ा कर देते हैं। वह बदलते दौर को लेकर सजग और उम्मीदों से सराबोर हैं। पेश है, उनसे ज्ञानेश उपाध्याय की बातचीत के प्रमुख अंश..

सवाल : आपकी पहली व प्रसिद्ध फिल्म स्वयंवरम को 50 साल हो गए, लेकिन इतनी ख्याति के बावजूद आप इतने वर्षों में महज 12 फिल्में ही दे पाए हैं?
अडूर : यह मत पूछिए कि मैं अब तक सिर्फ 12 फिल्में बना पाया। आप पूछिए कि मैं 12 फिल्में कैसे बना गया। अच्छा सिनेमा बनाना मेरे लिए कोई आसान काम नहीं है। मेरे आइडिया ऑफ सिनेमा को समय चाहिए। मुझे आश्चर्य है, अपने आइडिया ऑफ सिनेमा के साथ मैं 12 फिल्में बना पाया।

सवाल : कहा जाता है कि आप फिल्मोत्सवों और पुरस्कारों के लिए फिल्म बनाते हैं?
अडूर : नहीं, मैं ऐसा नहीं करता। मैं केवल अच्छा सिनेमा बनाता हूं। दरअसल, यहां समस्या शिक्षा और समझ के साथ है। पढ़ने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाता है। ज्यादातर अभिभावक चाहते हैं कि उनके बच्चे केवल पाठ्यपुस्तक पढ़ें। कला या अच्छे सिनेमा की समझ के लिए अच्छा पढ़ना जरूरी है।


सवाल : केरल तो बहुत शिक्षित और जागरूक राज्य है, लेकिन वहां भी अच्छी फिल्मों के निर्माण के लिए संघर्ष करना पड़ता है?
अडूर : व्यावसायिक सिनेमा वास्तव में धोखे के समान है। मैं इसका पक्षधर नहीं हूं।

सवाल : सिनेमा में मनोरंजन का क्या मूल्य है?
अडूर : अच्छा सिनेमा व्यापक है। अच्छा सिनेमा भी मनोरंजन करता है, पर वैसे बकवास ढंग से नहीं, जैसे व्यावसायिक सिनेमा करता है। अच्छा सिनेमा ऊपर-ऊपर ही नहीं रह जाता, आपके दिल में गहरे उतरकर खुशी देता है। व्यावसायिक सिनेमा में आत्मा नहीं है। यह लोगों को मूर्ख मानकर चलता है। वह नहीं चाहता कि आप विचार करें या कुछ सोचें।

सवाल : पिछले पचास साल में देश के निर्माण में सिनेमा का क्या योगदान आप देखते हैं?
अडूर : दरअसल, बदलाव का श्रेय सिनेमा को नहीं देना चाहिए। यह सोचना सही नहीं है कि सिनेमा कुछ बदल सकता है, सिनेमा का काम है जागरूक करना। जब कोई अच्छी फिल्म आप देखते हैं, तो ज्यादा जागरूक होते हैं। शायद जागरूक होने के बाद बदलाव की शुरुआत होती होगी।

सवाल : आपकी ऐसी कौन सी फिल्म है, जिसके बारे में आपको लगता है कि दर्शकों को जरूर देखनी चाहिए?
अडूर : मेरी सभी 12 फिल्मों को देखना चाहिए। मैं फिल्में फिजूल ही नहीं बनाता। अपने दर्शकों को बुद्धिमान मानता हूं। उन्हें सम्मान के साथ देखता हूं। सत्यजित राय ने एक बार मुझसे पूछा था, आप हर साल एक फिल्म क्यों नहीं बनाते हैं। लोग आपके काम के बारे में ज्यादा जान पाएंगे। लेकिन मैं शायद उतना उत्पादक या प्रोडक्टिव नहीं हूं। अपनी फिल्म पर तफसील से काम करता हूं, एक-एक शब्द लिखने से प्रदर्शन तक। किसी भी फिल्म के विचार के साथ मैं लंबे समय तक जीता हूं और तब परदे पर उसे साकार करता हूं।

सवाल : आप अपनी फिल्मों में कला और समाज को साथ लेकर कैसे चल रहे हैं?
अडूर : कला को सामाजिक मुद्दों से अलग नहीं कर सकते। मैं दिलचस्प तरीके से सामाजिक मुद्दों को उठाता हूं। फिल्म से लोग खुद को जोड़ लेते हैं। लोगों को जोड़ लेने वाला सिनेमा ही लोकप्रिय होता है।


सवाल : वेब सिनेमा का भी दौर चल रहा है। सिनेमा घरों में जाने से लोग बचने लगे हैं।
अडूर : जो आप मोबाइल पर देखेंगे, वह सिनेमा नहीं है। सिनेमा तो बड़े परदे पर देखने के लिए ही बनाया जाता है। बड़े हॉल, बड़े परदे पर सिनेमा देखना एक सामाजिक गतिविधि है। छोटे स्क्रीन पर कुछ देखना आपको छोटी जगह पर समेट देता है। जो दिख रहा है, उसे केवल आप देख सकते हैं, वह सामाजिक गतिविधि नहीं रह जाता है। आप सच्चे सिनेमा की ध्वनि, प्रकाश, प्रभाव से वंचित हो जाते हैं।

सवाल : आज क्या यह एक हठ नहीं है कि सिनेमा हम केवल बड़े परदे पर ही दिखाएंगे?
अडूर : वेब सिनेमा वास्तव में असली सिनेमा की हत्या कर देगा। अगर ऐसा होता है, तो त्रासद होगा। मुझे आशा है, असली सिनेमा बचेगा। मेरे लिए असली सिनेमा पवित्र कला है। असली सिनेमा जो प्राप्त कर सकता है, वहां तक कोई दूसरा कथित माध्यम कभी नहीं पहुंच सकता। सच तो सच ही है, कभी बदल नहीं सकता। आप सच देखते-खोजते रहिए, तो असली सिनेमा भी हमेशा रहेगा।